| दत्तात्रेय जी के 24 गुरू दत्तात्रेय जी ने अपने 24 गुरूओं की कथा सुनाई और कहा कि मेरी दृष्टि जहाँ भी गई, मैंने वहीं से शिक्षा ग्रहण की| दत्तात्रेय जी का प्रथम गुरू पृथ्वी है| पृथ्वी से मैंने उपकार और सहनशीलता ग्रहण की| पृथ्वी में यदि कोई एक दाना डाले तो वह अनंत में परिवर्तित हो जाता है| यही पृथ्वी का उपकार है| पृथ्वी के ऊपर कोई कुछ भी फेंके (कूड़ा, कचरा इत्यादि) फिर भी पृथ्वी सबको धारण करती है| यह पृथ्वी की सहनशीलता है| व्यक्ति को उपकारी एवं सहनशील होना चाहिए। पृथ्वी का एक नाम क्षमा भी है| क्षमाशील व्यक्ति प्रभु को बहुत प्रिय है| दत्तात्रेय जी के द्वितीय गुरू वायु है| वायु का अपना कोई गन्ध नहीं है| उसको जैसा संसर्ग मिले, वह वही गुण ग्रहण कर लेती है| वायु यदि उपवन में चले तो खुशबू ग्रहण देती है और यदि नाली के पास हो तो बदबू देती है| जैसे कि अच्छे लोगों के मिलने से सुगन्ध आती है| जीवन में संग का असर अवश्य पड़ता है| अतः साधक को नित्य सत्संग में रहना चाहिए। तृतीय गुरू आकाश है| आकाश सर्वव्यापक है| कोई भी जगह आकाश के बिना अर्थात् खाली नहीं है| इसी प्रकार आत्मा भी सर्वव्यापक हैं| चतुर्थ गुरू जल है| जल का कोई आकार नहीं होता| यह 0'c होता है| इसका तापमान बदलने से वाष्प, बर्फ इत्यादि का रूप बन जाता है| इसी प्रकार भक्तों की भक्ति की शीतलता से निराकार परमात्मा भी आकार ग्रहण कर लेता है| पंचम गुरू अग्नि है| जिस प्रकार से अग्नि को किसी भी चीज का संसर्ग हो तो वह सबको भस्म कर देती है, उसी प्रकार से ज्ञान की अग्नि भी जीवन के सभी कर्म-समूह को भस्म कर देती है| षष्ठम गुरू चन्द्रमा है| चन्द्रमा सबको शीतलता देता है| चन्द्रमा की कलाएँ शुक्ल-पक्ष और कृष्ण-पक्ष के अनुसार घटती-बढ़ती रहती हैं, लेकिन इस घटने-बढ़ने का चन्द्रमा पर कोई प्रभाव नहीं होता| उसी प्रकार आत्मा भी विभिन्न शरीर धारण करती है लेकिन उन शरीरों की अवस्थायें परिवर्तित होने से आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता| सप्तम गुरू सूर्य है| सूर्य की प्रखर किरणें समुद्र पर पड़ती हैं, वही किरणें समुद्र का खारा पानी ग्रहण करती हैं और उस खारे पानी को मेघ बना कर अर्थात् मीठा जल बना कर पृथ्वी पर बरसाती हैं| इससे शिक्षा मिलती है कि कटुवचन सुनकर भी मीठे वचन ही बोलने चाहिए| अष्टम गुरू कबूतर है| कबूतर ने मोह के कारण अपने बच्चे और कबूतरी के पीछे-पीछे बहेलिया के जाल में फँसकर, अपने प्राण त्याग दिए| इसी प्रकार मनुष्य भी अपने परिवार और बच्चों के मोह में फँसकर जीवन व्यर्थ गँवा देता है| भगवान का भजन नहीं करता| मोह सर्वनाशक होता है। नवम गुरू अजगर है| मनुष्य को अजगर के समान जो भी रूखा-सूखा मिले, उसे प्रारब्ध-वश मानकर स्वीकार करें| उदासीन रहे और निरंतर प्रभु का भजन करे| मनुष्य के अन्दर अजगर की तरह मनोबल, इन्द्रियबल और देहबल तीनों ही होते हैं| अतः सन्यासी को अजगर की तरह ही रहना चाहिए| अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम। दास 'मलुका' कह गये सबके दाता राम।। अजगर से संतोष की शिक्षा मिलती है| यदि जीवन में संतोष रूपी धन आ गया (जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान) तो सब धन बेकार है| प्रभु ने हमें जो भी दिया है वह हमारी योग्यता से नहीं बल्कि अपनी कृपा से दिया है| चाहे वह मणिमाला ही क्यों न हो| मनुष्य की तृष्णा कभी भी नहीं मिटती, उसका पेट कभी नहीं भरता| मनुष्य दूसरे के सुख को देखकर दुःखी होता है, अपने दुःख से दुःखी नहीं होता, यही सबसे बड़ी दरिद्रता है| दसवाँ गुरू सिन्धु (समुद्र) है| साधक को समुद्र की भाँति अथाह, अपार, असीम होना चाहिए और सदैव गम्भीर व प्रसन्न रहना चाहिए जैसे कि समुद्र में इतनी नदियों का जल आता है, परंतु समुद्र सबको प्रसन्नता व गम्भीरता से ग्रहण करता है| न तो किसी की उपेक्षा ही करता है और न ही किसी की इच्छा(कामना) ही करता है| हमें भी जो मिलता है, ईश्वर कृपा मानकर, प्रेम से स्वीकार करना चाहिए| मनुष्य के अन्दर शांति आनी चाहिए परंतु अहंकार नहीं होना चाहिए कि मेरे पास इतना कुछ है (बड़ा योगी हूँ, साधक, भक्त इत्यादि हूँ)| ग्यारहवाँ गुरू पतिंगा है| जिस प्रकार से पतंगा अग्नि के रूप पर आसक्त होकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य भी रूप की आसक्ति में फँस कर जीवन नष्ट कर देता है| रूपासक्ति भक्ति में बाधक है| सुन्दर संसार नहीं, संसार के अधिष्ठाता सुन्दर हैं| ऐसी एक कथा आती है कि ब्रह्मा जी जब सृष्टि रचने लगे तब ब्रह्मा जी के मन में आया कि सुन्दरता के बिना सृष्टि में आकर्षण भी नहीं होता| इसीलिये ब्रह्मा जी ने भी, सृष्टि रचने के लिये, भगवान से सुन्दरता माँगी थी| भगवान ने कहा कि "एक तिनका समुद्र में डाल देना| उस तिनके को समुद्र से निकालने पर उसके ऊपर जितने बिन्दु हों, उसी सिन्धु के बिन्दु की सुन्दरता से सृष्टि की रचना करना|" सुन्दरता कभी समाप्त नहीं होगी। अब सोचें कि जब सुन्दरता के सिन्धु के बिन्दु में इतना सामर्थ्य है तो फिर सिन्धु में कितना होगा? शिक्षा:-- अन्दर से तो हम सब एक हैं| शारीरिक सुन्दरता तो मात्र बाहर का पेकिंग है| वह packing किसी का golden है तो किसी का iron है| साधक को ठाकुर के सुन्दर-सुन्दर रूपों का चिंतन करके निहाल होना चाहिए और उसी में मिल जाना चाहिए| बारहवाँ गुरू मधुमक्खी है| मधुमक्खियाँ कई जगह के फूलों से रस लेकर मधु (शहद) एकत्रित करती हैं| मनुष्य को चाहिए कि जहाँ कहीं से अच्छी शिक्षा मिलती हो, ले लेना चाहिए| तेरहवाँ गुरू हाथी है| जिस प्रकार से हाथी नकली हथिनी के चंगुल के कारण पकड़ा जाता है, उसी प्रकार मनुष्य भी कामाशक्ति के कारण बन्धन में फँस जाता है| अतः मनुष्य को कामाशक्ति का त्याग करना चाहिए| चौदहवाँ गुरू मधुहा (शहद निकालने वाला) है| मधुमक्खियों ने शहद एकत्रित किया, किंतु शहद निकालने वाला संग्रहीत शहद को निकाल कर ले जाता है| इससे यह शिक्षा मिलती है कि संग्रह करने वाले उपयोग से वंचित रह जाते हैं| उपयोग दूसरा व्यक्ति करता है| अतः केवल संग्रह ही नहीं, अपितु संग्रह की गई वस्तुओं का सदुपयोग करना चाहिए| पन्द्रहवाँ गुरू हिरण है| हिरण संगीत के लोभ में पड़कर पकड़ा जाता है क्योंकि वह कान का कच्चा होता है| मनुष्य को भी विकार पैदा करने वाला या संसार की तरफ खींचने वाला संगीत नहीं सुनना चाहिए| सोलहवाँ गुरू मछली(मीन) है| मछुआरे मछली पकड़ने के लिये डेढ़ा में धागा बाँध कर, उस धागे में एक काँटा और उस काँटे में आटे की गोली का लालच देकर मछली पकड़ते हैं| इसी प्रकार से साधक को विषयों की आसक्ति का काँटा अर्थात् लोभ खींचता रहता है जिससे कि उसकी साधना भंग हो जाती है| सत्रहवाँ गुरू वेश्या पिंगला:--एक पिंगला नाम की वेश्या थी। उसे हमेशा अपने ग्राहक की अपेक्षा, आशा, चिंता लगी रहती थी | एक दिन पिंगला पुरूष की प्रतीक्षा में बैठी थी| सन्ध्या हो गई, कोई नहीं आया| उसने विचार किया कि जैसी प्रतीक्षा जो मैंने संसार के लिये की , वैसी प्रतीक्षा जो मैंने प्रभु के लिये की होती तो मेरा कल्याण हो जाता| तब से उसने संसार की आशा को त्याग दिया| शिक्षा:--इसी प्रकार से मनुष्य की आशा, कामना ही उसके दुःख का कारण है| "आशा ही परमम् दुःखम्" आशा ही व्यक्ति को कमजोर बनाती है, आशा से व्यक्ति का आत्मबल चला जाता है| आशा के कारण ही व्यक्ति अपमान भी सहन करता है| आशा को त्यागने से ही जगत तमाशा लगने लगता है और व्यक्ति सामर्थ्यवान बन जाता है| उसका आत्म-विश्वास जग जाता है| एक कवि ने लिखा है कि:-- आशा ही जीवन मरण निराशा अरू। आशा ही जगत की विचित्र परिभाषा है।। आशावश कोटिन्ह यज्ञ जप तप करत है नर। आशा ही मनुष्य की समस्त अभिलाषा है।। आशावश कोटिन्ह अपमान सहकर भी नर। बोलता बिहँसि के सुधामयी भाषा है।। आशावश जेते नर जग के तमाशा बने। तजि जिन्ह आशा तिन्ह जग ही तमाशा है।। अठारहवाँ गुरू कुररपक्षी:---कुररपक्षी अपनी चोंच में माँस का टुकड़ा लेकर उड़ रहा था, तभी उसके पीछे कुररपक्षी से बलवान बड़ा पक्षी उसके पीछे लग गया और चोंच मार-मार कर उसको वेदना देने लगा| जब उस कुररपक्षी ने उस माँस के टुकड़े को फेंक दिया, तभी कुररपक्षी को सुख मिला| अन्य पक्षी मांस के टुकड़े की तरफ लग गये। कुररपक्षी उनके आक्रमण से मुक्त हुआ। इससे शिक्षा मिलती है कि संग्रह ही दुःख का कारण है, जो व्यक्ति शरीर या मन किसी से भी किसी प्रकार का संग्रह नहीं करता, उसे ही अनंत सुखस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है| उन्नीसवाँ गुरू बालक:--बालक इतना सरल होता है कि उसे मान-अपमान किसी की चिंता नहीं होती| अपनी मौज में रहता है| इससे शिक्षा मिलती है कि निर्दोष नन्हें बालक की तरह, सरल, मान-अपमान से परे ही व्यक्ति ब्रह्मरूप हो सकता है और सुखी रह सकता है| बीसवाँ गुरू कुमारी:--कुमारी से शिक्षा मिली कि साधना एकांत में होती है, चिंतन भी एकांत में होता है, यदि समूह में चर्चा हो तो वह सत-चर्चा| वही सच्चर्चा का आधार लेकर सत् परमात्मा से जुड़ जाये तो वह सत्संग है| सत् परमात्मा का ही नाम है| एक कुमारी कन्या के वरण के लिये कुछ लोग आए थे| घर में कुमारी अकेली थी| उसने सभी का आदर-सत्कार किया| भोजन की व्यवस्था के लिये कुमारी ने घर के अन्दर धान कूटना शुरू किया जिससे कि उसके हाथ की चूड़ियाँ आवाज करने लगीं| कुमारी ने एक चूड़ी को छोड़कर बाकी सभी चूड़ियों को धीरे-धीरे हाथ से निकाल दिया और धान कूटकर, भोजन के द्वारा सभी का सत्कार किया| साधक को साधना एकांत में ही करना चाहिए| इक्कीसवाँ गुरू बाण बनाने वाला:--इससे सीखा कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में करके, बहुत सावधानी के साथ, मन को एक लक्ष्य में लगा देना चाहिए| किसी भी कार्य को मनोयोग से करना चाहिए| एक बाण बनाने वाला अपने कार्य में इतना मग्न था कि उसके सामने से राजा की सवारी जा रही थी, किंतु उसे मालूम नहीं पड़ा कि कौन जा रहा है? बाईसवाँ गुरू सर्प:----सर्प से सीखा कि भजन अकेले ही करना चाहिए| मण्डली नहीं बनानी चाहिए| सन्यासी ने जब सब कुछ छोड़ दिया तो उसे आश्रम या मठ के प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए| गृहस्थी को भगवत्-साधन एवं भजन के द्वारा घर को ही तपस्थली बनाना चाहिए। शिक्षा:--मनुष्य को अपने घर को नहीं छोड़ना चाहिए| घर को ही भगवान से जोड़ना चाहिए| मनुष्य यदि अपने भाई-बहिन को छोड़ेगा तो किसी और को भाई-बहिन बना लेगा| फिर कहेगा कि ये मेरे गुरू-भाई हैं, ये मेरी गुरू-बहन हैं| अतः घर में रह कर ही भगवान से जुड़ना चाहिए, घर को छोड़कर नहीं| तेईसवाँ गुरू मकड़ी:-- मकड़ी अपने मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसमें विहार करती है और बाद में उसे अपने में ले लेती है| उसी प्रकार परमेश्वर भी इस जगत को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीव रूप से विहार करते हैं और फिर अपने में लीन कर लेते हैं| वे ही सबके अधिष्ठाता हैं, आश्रय हैं| चौबीसवाँ गुरू भृंगी (बिलनी) कीड़ा:--भृंगी कीड़ा अन्य कीड़े को ले जाकर और दीवार पर रखकर अपने रहने की जगह को बन्द कर देता है, लेकिन वह कीड़ा भय से उसी भृंगी कीड़े का चिंतन करते-करते, अपने प्रथम शरीर का त्याग किए बिना ही, उसी शरीर में तद्रूप हो जाता है| अतः जब उसी शरीर से चिंतन किए रूप की प्राप्ति हो जाती है, तब दूसरे शरीर का तो कहना ही क्या है? इसलिये मनुष्य को भी किसी दूसरी वस्तु का चिंतन न करके, केवल परमात्मा का ही चिंतन करना चाहिए| परमात्मा के चिंतन से साधक परमात्मा-रूप हो सकता है| दत्तात्रेय जी ने कहा कि हे राजन्! अकेले गुरू से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता, अपनी बुद्धि से भी बहुत कुछ सोचने-समझने की आवश्यकता है| भगवान के चरणों में निष्ठा होनी चाहिए| भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा कि इस प्रकार दत्तात्रेय जी ने राजा यदु को ज्ञान प्रदान किया| यदु महाराज ने उनकी पूजा की| दत्तात्रेय जी राजा यदु से अनुमति लेकर चले गये और राजा यदु का उद्धार हो गया| उनकी आसक्ति समाप्त हो गई और वे समदर्शी हो गये| इसी प्रकार हे प्यारे उद्धव! तुम्हें भी सभी आसक्तियों का त्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिए| |